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कब और कैसे करें

किसान सुबोध ने दोस्त की सलाह से खीरे की खेती कर मिशाल पेश करी है

किसान सुबोध ने दोस्त की सलाह से खीरे की खेती कर मिशाल पेश करी है

बिहार के इस किसान ने पारंपरिक खेती छोड़ शुरु की खीरे की खेती। आज वह हर सीजन में लाखों की आमदनी कर रहे हैं। भारत में किसान अब परंपरागत खेती को छोड़कर नई तकनीक को अपना रहे हैं। किसान सब्जी एवं मेडिसिनल प्लांट की खेती कर आर्थिक हालातों को बेहतर कर रहे हैं। इस वक्त बिहार के भिन्न-भिन्न जनपदों में युवा किसान सब्जी और औषधीय पौधों की खेती कर काफी मोटी आमदनी कर रहे हैं। इसके लिए बिहार सरकार भी किसानों को बड़े पैमाने पर सब्सिड़ी उपलब्ध करा रही है।

किसान सुबोध खीरे की खेती करते हैं

बिहार के सहरसा जनपद के युवा किसान सुबोध झा ने अपनी 4 एकड़ की भूमि में नेट हाउस पद्धति से
खीरे की खेती की चालू करी। उसके लिए उन्होंने बिहार सरकार से सब्सिड़ी भी ली है। किसान सुबोध का कहना है, कि केवल 3 से 4 महीनों में ही उन्हें चार से पांच लाख रुपए का मुनाफा हुआ। इस आमदनी से उन्होंने फिलहाल औषधीय पौधों की भी खेती चालू कर दी है। ये भी पढ़े: पॉली हाउस तकनीक से खीरे की खेती कर किसान कमा रहा बेहतरीन मुनाफा

सुबोध को खीरे की खेती के लिए किसने सलाह दी

किसान सुबोध का कहना है, कि वह काफी वर्षों से खेती-किसानी कर रहे हैं। परंतु, खीरे की खेती के संदर्भ में उनके एक दोस्त ने जानकारी दी, जो कि बिहार के कृषि विभाग में नौकरी करते हैं। उनकी सलाह के पश्चात उन्होंने इसकी खेती की शुरुआत करी है। सुबोध अपने खीरे की खेती के लिए केवल जैविक खाद का उपयोग करते हैं, जिस कारण उनके खीरे की मांग बाजार में काफी ज्यादा रहती है।

सुबोध से अन्य किसान भी तकनीकी गुर सीख रहे हैं

सुबोध का कहना है, कि उनकी खीरे की खेती की सफलता को ध्यान में रखते हुए उनके आस पास के साथी किसान भी बेहद प्रभावित हुए हैं। साथ ही, उन्होंने भी खीरे और औषधीय पौधे की खेती शुरु कर दी है। सुबोध ने बताया है, कि वह समय-समय पर अपने जनपद के कृषि वैज्ञानिकों से खेती से जुड़ी जानकारी से जुड़ी सलाह लेते हैं। वह बताते हैं, कि नेट हाउस में सब्जी की खेती करने से उनको काफी अच्छा उत्पादन हांसिल हुआ है। देखा देखी उनकी राह पर अन्य युवा किसान भी चलने लगे हैं।
लौकी की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी के बारे में

लौकी की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी के बारे में

लौकी भारत में सब्जी के रूप में बड़े पैमाने पर उगाई जाती है और इसके फल साल भर उपलब्ध रहते हैं। लौकी नाम फल के बोतल जैसे आकार और अतीत में कंटेनर के रूप में इसके उपयोग के कारण पड़ा। नरम अवस्था में फलों का उपयोग पकी हुई सब्जी के रूप में और मिठाइयाँ बनाने के लिए किया जाता है। परिपक्व फलों के कठोर छिलकों का उपयोग पानी के जग, घरेलू बर्तन, मछली पकड़ने के लिए जाल के रूप में किया जाता है। सब्जी के रूप में यह आसानी से पचने योग्य है। इसकी तासीर ठंडी होती है और कार्डियोटोनिक गुण के कारण मूत्रवर्धक होता है।  लोकि से कई रोग जैसे की कब्ज, रतौंधी और खांसी को नियंत्रित किया जा सकता है। पीलिया के इलाज के लिए पत्ते का काढ़ा बनाकर सेवन किया जाता है। इसके बीजों का उपयोग जलोदर रोग में किया जाता है।  

लौकी की फसल के लिए उपयुक्त जलवायु

लौकी एक सामान्य गर्म मौसम की सब्जी है। खरबूजा और तरबूज की तुलना में लोकि की फसल ठंडी जलवायु को बेहतर सहन करती है। लोकि की फसल पाले को बर्दाश्त नहीं कर सकती। अच्छी जल निकास वाली उपजाऊ गाद दोमट होती है।  यह भी पढ़ें:
लौकी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी इसकी खेती के लिए गर्म और नम जलवायु अनुकूल होती है। रात का तापमान 18- 22°C और  दिन का तापमान 30-35  इसकी उचित वृद्धि और उच्च फल के लिए इष्टतम होता है। 

खेत की तैयारी     

फसल की बुवाई से पहले खेत को तैयार किया जाता है। खेत को प्लॉव से एक बार गहरी जुताई करके तैयार करें उसके बाद इसके बाद 2 बार हैरो की मदद से खेत को अच्छी तरह से जोते। आखरी जुताई के समय खेत में 4 टन प्रति एकड़ की दर से गोबर की खाद या कम्पोस्ट को अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें।             

बीज की बुवाई

यदि आप चाहे तो सीधे बीजो को खेत में लगाकर भी इसकी खेती कर सकते है | इसके लिए आपको तैयार की गयी नालियों में बीजो को लगाना होता है| बीजो की रोपाई से पहले तैयार की गयी नालियों में पानी को लगा देना चाहिए उसके बाद उसमे बीज रोपाई करना चाहिए।  यह भी पढ़ें: जानिए लौकी की उन्नत खेती कैसे करें लौकी की जल्दी और अधिक पैदावार के लिए इसके पौधों को नर्सरी में तैयार कर ले फिर सीधे खेत में लगा दे। पौधों को बुवाई के लगभग 20 से 25 दिन पहले तैयार कर लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त बीजो को रोग मुक्त करने के लिए बीज रोपाई से पहले उन्हें गोमूत्र या बाविस्टीन से उपचारित कर लेना चाहिए। इससे बीजो में लगने वाले रोगो का खतरा कम हो जाता है, तथा पैदावार भी अधिक होती है। 

रोपाई का समय और तरीका

बारिश के मौसम में इसकी खेती करने के लिए बीजो की जून के महीने में रोपाई कर देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी रोपाई को मार्च या अप्रैल के महीने में करना चाहिए।  समतल भूमि में की गयी लौकी की खेती को किसी सहारे की जरूरत नहीं होती है | ऐसी स्थिति में इसकी बेल जमीन में फैलती है, किन्तु जमीन से ऊपर इसकी खेती करने में इसे सहारे की जरूरत होती है। इसके लिए खेत में 10 फ़ीट की दूरी पर बासो को गाड़कर जल बनाकर तैयार कर लिया जाता है, जिसमे पौधों को चढ़ाया जाता है। इस विधि को अधिकतर बारिश के मौसम में अपनाया जाता है।  

फसल में खरपतवार नियंत्रण  

खरपतवार नियंत्रण करने के लिए फसल में समय समय पर निराई गुड़ाई करते रहे ताकि फसल को खरपतवार मुक्त रखा जा सकें।  यह भी पढ़ें: सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया रासायनिक तरीके से खरपतवार पर नियंत्रण के लिए ब्यूटाक्लोर का छिड़काव जमीन में बीज रोपाई से पहले तथा बीज रोपाई के तुरंत बाद करनी चाहिए| खरपतवार के नियंत्रण से पौधे अच्छे से वृद्धि करते है, तथा पैदावार भी अच्छी होती है | 

फसल में उर्वरक और पोषक तत्व प्रबंधन

फसल से उचित उपज प्राप्त करने के लिए 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 15 - 20 किलोग्राम फॉस्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ की दर से खेत में डालें।    

लौकी के प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण

  • लौकी (घीया) एक प्रमुख फलीय सब्जी है जो भारतीय खाद्य पदार्थों में आमतौर पर प्रयोग होती है। यह कई प्रमुख रोगों के प्रभावित हो सकती है, जिनमें से कुछ मुख्य हैं:
  • लौकी मोजैक्यूलर वायरस रोग (Luffa Mosaic Virus Disease):
  • इस रोग में पत्तियों पर पीले या हरे रंग के पट्टे दिखाई देते हैं। यह रोग पौधों की वृद्धि और उत्पादन पर असर डालता है।
  • नियंत्रण के लिए, स्वस्थ बीजों का उपयोग करें और बीमार पौधों को नष्ट करें।
  • लौकी मॉसेक वायरस रोग (Luffa Mosaic Virus Disease):
  • इस रोग में पत्तियों पर सफेद या हरे रंग के दाग दिखाई देते हैं। यह पौधों की वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
  • नियंत्रण के लिए, स्वस्थ बीजों का उपयोग करें और संक्रमित पौधों को नष्ट करें।
  • दाग रोग (Powdery Mildew): यह रोग पात्र प्रभावित करके पौधों पर धूल की तरह सफेद दाग उत्पन्न करता है। इसके नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाएं:
  • दाग रोग से प्रभावित पौधों को हटाएं और उन्हें जला दें।
  • पौधों की पर्यावरण संगठना को सुधारें, उचित वेंटिलेशन प्रदान करें और पानी की आपूर्ति को नियमित रखें।
  • दाग रोग के लिए केमिकल फंगिसाइड का उपयोग करें, जैसे कि सल्फर युक्त फंगिसाइड।

लौकी के फल की तुड़ाई और पैदावार

फसल की बुवाई और रोपाई के लगभग 50 दिन बाद लौकी उड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। जब लौकी सही आकर की दिखने लगे तब उसकी तुड़ाई कर ले। तुड़ाई करते समय किसी धारदार चाकू या दराती का इस्तेमाल करें। लौकी को तोड़ते समय फल के ऊपर थोड़ा सा डंठल छोड़ दें जिससे फल कुछ समय तक फल ताजा रहें। लौकी की तुड़ाई के तुरंत बाद पैक कर बाजार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए | फलो की तुड़ाई शाम या सुबह दोनों ही समय की जा सकती है। एक एकड़ भूमि से लगभग 200 क्विंटल का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। 
गर्मियों के मौसम में ऐसे करें प्याज की खेती, होगा बंपर मुनाफा

गर्मियों के मौसम में ऐसे करें प्याज की खेती, होगा बंपर मुनाफा

देश के कई राज्यों में प्याज की खेती साल में सिर्फ एक बार की जाती है। लेकिन कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां प्याज की खेती साल में तीन बार की जाती है। इसमें महाराष्ट्र का स्थान सबसे ऊपर है। इस राज्य के धुले, अहमदनगर, नासिक, पुणे और शोलापुर जिलों में प्याज का बंपर उत्पादन होता है। यहां पर साल में अमूमन तीन बार प्याज की खेती की जाती है। इसलिए महाराष्ट्र को देश का सबसे बड़ा प्याज उत्पादक राज्य कहा जाता है। महाराष्ट्र के नाशिक जिले की लासलगांव मंडी को एशिया की सबसे बड़ी प्याज की मंडी का दर्जा प्राप्त है। प्याज का उपयोग ज्यादातर सब्जी के रूप में हर घर में किया जाता है। इसके अलावा थोड़ी बहुत मात्रा में इसका उपयोग दवाई बनाने में भी किया जाता है। प्याज की फसल सामान्यतः 100 से 120 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। प्याज का बंपर उत्पादन होने के कारण किसान भाई इस खेती से ज्यादा मुनाफा कमाते हैं।

प्याज की खेती के लिए उचित जलवायु और मृदा

प्याज की खेती के लिए ज्यादा तापमान उचित नहीं माना जाता। ऐसे में गर्मियों के मौसम में किसानों को यह सुनिश्चित करना होता है कि खेत का तापमान बहुत ज्यादा न बढ़ने पाए। इसके साथ ही शुष्क जलवायु इस खेती के लिए बेहतर मानी जाती है। अगर प्याज की खेती में मृदा की बात करें तो  उचित जलनिकास एवं जीवांषयुक्त उपजाऊ दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त होती है। प्याज की खेती अत्यंत गीली या दलदली जमीन पर नहीं करना चाहिए। प्याज की खेती के लिए मिट्टी का पी.एच. मान 6.5-7.5 के मध्य होना चाहिए। इसके लिए किसान भाई बुवाई के पहले मृदा परीक्षण अवश्य करवा लें।

प्याज की किस्में

बाजार में प्याज की कुछ किस्में ज्यादा प्रसिद्ध हैं, जिनमें एग्री फाउण्ड डार्क रेड, एन-53 और भीमा सुपर का नाम आता है। एग्री फाउण्ड डार्क रेड किस्म को भारत में कहीं भी आसानी से उगाया जा सकता है। इसके कंद गोलाकार होते हैं, जिनका आकार 4 से 6 सेंटीमीटर बड़ा होता है। इसके साथ ही यह फसल 95-110 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। यह किस्म एक हेक्टेयर में 300 क्विंटल का उत्पादन दे सकती है। ये भी पढ़े: वैज्ञानिकों ने निकाली प्याज़ की नयी क़िस्में, ख़रीफ़ और रबी में उगाएँ एक साथ एन-53 किस्म को भी भारत में कहीं भी उगाया जा सकता है। लेकिन इसकी फसल 140 दिनों में तैयार होती है। साथ ही इस किस्म का उत्पादन 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है। भीमा सुपर एक अलग तरह की प्याज की किस्म है। जिसमें किसानों को उगाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी होती है। यह किस्म 110-115 दिन में तैयार हो जाती है और इसका उत्पादन भी 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है।

ऐसे करें भूमि की तैयारी

प्याज की खेती के लिए भूमि को अच्छे से तैयार करना बेहद जरूरी है। इसके लिए कल्टीवेटर या हैरो की मदद से 2 से 3 बार जुताई करें। जुताई के साथ ही खेत में पाटा अवश्य चलाएं, ताकि मिट्टी भुरभुरी हो सके और नमी सुरक्षित रहे। भूमि की सतह से 15 से.मी. उंचाई पर 1.2 मीटर का बेड तैयार कर लें। जिस पर प्याज की बुवाई की जाती है।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

प्याज की फसल के लिए खाद एवं उर्वरक का प्रयोग मिट्टी के परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। अगर खेत में अधिक पोषक तत्वों की जरूरत हो तो खेत में गोबर की सड़ी खाद 20-25 टन/हेक्टेयर की दर से बुवाई के 1 माह पूर्व डालना चाहिए। इसके अलावा खेत में नत्रजन 100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, स्फुर 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पोटाश 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डाल सकते हैं। यदि खेत की गुणवत्ता ज्यादा ही खराब है तो खेत में सल्फर 25 कि.ग्रा.एवं जिंक 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से डाल सकते हैं। ये भी पढ़े: आलू प्याज भंडारण गृह खोलने के लिए इस राज्य में दी जा रही बंपर छूट

ऐसे तैयार करें पौध

प्याज की पौध को उठी हुई क्यारियों में तैयार किया जाता है। बोने के पहले बीजों को अच्छे से उपचारित करना चाहिए। प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 15 से 20 ग्राम बीज बोना चाहिए। इसके लिए 3 वर्ग मीटर की क्यारियां बनाना चाहिए। एक हेक्टेयर भूमि में 8 से 10 किलोग्राम बीज बोया जाता है।

ऐसे करें रोपाई

प्याज की पौध की रोपाई मिट्टी के तैयार किए गए बेड में की जाती है। इसके लिए एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई करने के लिए 12 से 15 क्विंटल पौध की जरूरत होती है। पौध की रोपाई कूड़ शैय्या पद्धति से करना चाहिए। इसमें 1.2 मीटर चौड़ा बेड एवं लगभग 30 से.मी. चौड़ी नाली तैयार की जाती हैं। पौध को अंकुरित होने के 45 दिन बाद ही बेड पर लगाना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

प्याज की फसल में खरपतवार से छुटकारा पाने के लिए समय-समय पर निराई गुड़ाई की जरूरत होती है। पूरी फसल के दौरान कम से कम 3 से 4 बार निराई गुड़ाई अवश्य करना चाहिए। इसके अलावा खरपतवार को नष्ट करने के लिए रासायनिक पदार्थो का उपयोग भी किया जा सकता है। इसके लिए पौध की रोपाई के 3 दिन पश्चात 2.5 से 3.5 लीटर/हेक्टेयर की दर से पैन्डीमैथेलिन का छिड़काव किया जा सकता है। इसे 750 लीटर पानी में घोला चाहिए। इसके अलावा इतने ही पानी में 600-1000 मिली/हेक्टेयर के हिसाब से ऑक्सीफ्लोरोफेन का छिड़काव भी किया जा सकता है। ये भी पढ़े: प्याज की खेती के जरूरी कार्य व रोग नियंत्रण

प्याज की फसल की सिंचाई

प्याज की फसल में सिंचाई बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। अन्यथा फसल तुरंत ही सूख जाएगी। इस फसल में यह ध्यान देने योग्य बात होती है कि जब कंदों का निर्माण हो रहा हो तब खेत में पानी की कमी न रहे। नहीं तो पौध का विकास रुक जाएगा और प्याज का आकार बड़ा नहीं हो पाएगा। ऐसे में उपज प्रभावित हो सकती है। आवश्यकतानुसार 8 से 10 दिन के अंतराल में फसल में पानी देते रहें। यदि खेत में पानी रुकने लगे तो उसकी जल्द से जल्द निकासी की व्यवस्था करना चाहिए। अन्यथा फसल में फफूंदी जनित रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है।

कंदों की खुदाई

जैसे ही प्याज की पत्तियां सूखने लगती हैं और प्याज की गांठ अपना आकार ले लेती है तो 10-15 दिन पहले सिंचाई बंद कर देना चाहिए। जब खेत पूरी तरह से सूख जाए, उसके बाद पौधों के शीर्ष को पैर की मदद से कुचल देना चाहिए। इससे कंदों की वृद्धि रुक जाती है और कंद ठोस हो जाते हैं। इसके बाद कंदों को खोदकर खेत में ही सुखाना चाहिए। सूखने के बाद प्याज को भरकर भंडारण के लिए भेज देना चाहिए।
जानिए लौकी की उन्नत खेती कैसे करें

जानिए लौकी की उन्नत खेती कैसे करें

लौकी की खेती करके किसान अपनी दैनिक जरूरतों के लिए रोजाना के हिसाब से आमदनी कर सकता है.लौकी आम से लेकर खास सभी के लिए लाभप्रद है. ताजगी से भरपूर लौकी कद्दूवर्गीय में खास सब्जी है. इससे बहुत तरह के व्यंजन जैसे रायता, कोफ्ता, हलवा व खीर, जूस वगैरह बनाने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं. आजकल मोटापा भी एक रोग बनकर उभर रहा है. इसके नियंत्रण के लिए भी लौकी का जूस पीने की सलाह दी जाती है बशर्ते यह पूरी तरह से आर्गेनिक उत्पादन हो. अगर किसी कीटनाशक या इंजेक्शन का प्रयोग करके इसे उगाया गया हो तो ये काफी नुकसान दायक हो जाती है. यह कब्ज को कम करने, पेट को साफ करने, खांसी या बलगम दूर करने में बहुत फायदेमंद है. इस के मुलायम फलों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिजलवण के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं. लौकी की खेती पहाड़ी इलाकों से ले कर दक्षिण भारत के राज्यों तक की जाती है. निर्यात के लिहाज से सब्जियों में लौकी खास है.

लौकी उगाने का सही समय:

लौकी एक
कद्दूवर्गीय सब्जी है. इसकी खेती गांव में किसान कई तरह से करते हैं इसकी खेती अपने घर के प्रयोग के लिए माता और बहनें अपने बिटोड़े और बुर्जी पर लगा कर भी करती हैं. बाकी किसान इसको खेत में भी करते हैं. लौकी की फसल वर्ष में तीन बार उगाई जाती है. जायद, खरीफ और रबी में लौकी की फसल उगाई जाती है। इसकी बुवाई मध्य जनवरी, खरीफ मध्य जून से प्रथम जुलाई तक और रबी सितम्बर अन्त और प्रथम अक्टूबर में लौकी की खेती की जाती है। जायद की अगेती बुवाई के लिए मध्य जनवरी के लगभग लौकी की नर्सरी की जाती है. अगेती बुबाई से किसान भाइयों को अच्छा भाव मिल जाता है. लौकी उगाने का सही समय

मौसम और जलवायु:

इसके बीज को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की आवश्कयता होती है. बाकी इसके फल लगाने के लिए कोई भी सामान्य मौसम सही रहता है. अगर हम बात करें किसान के बुर्जी या बिटोड़े के फल की तो इसकी बुबाई पहली बारिश के बाद की जाती है जो की जून और जुलाई के महीने में होता है और इस पर फल सर्दियों में लगना शुरू होता है. बाकी इसको सभी सीजन में उगाया जा सकता है. बारिश के मौसम में अगर इसको कीड़ों से बचाना हो तो इसको जाल लगा कर जमीन से 5 फुट के ऊपर कर देना चाहिए. इससे मिटटी की वजह से फल खराब नहीं होते तथा इनका रंग भी चमकदार होता है. ये भी पढ़ें: तोरई की खेती में भरपूर पैसा

मिटटी की गुणवत्ता और खेत की तैयारी:

लौकी की फसल के लिए खेत में पुराणी फसल के जो अवशेष हैं उनको गहरी जुताई करके नीचे दबा देना चाहिए. इससे वो खरपतवार भी नहीं बनेंगें और खाद का भी काम करेंगें.इसको किसी भी तरह की मिटटी में उगाया जा सकता है लेकिन ध्यान रहे इसके खेत में पानी जमा नहीं होना चाहिए इससे इसकी फसल और फल दोनों ही ख़राब होते हैं. खेत से पानी निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. और अगर संभव हो तो इसके खेत में गोबर की सड़ी हुई खाद कम से कम 50 से 60 कुंतल की हिसाब से मिला दें. इससे खेत को ज्यादा रासायनिक खाद पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा.इसकी तैयारी करते समय पलेवा के बाद इसकी जुताई ऐसे समय करें जबकि न तो खेत ज्यादा गीला हो और नहीं ज्यादा सूखा जिससे जुताई करते समय इसकी मिटटी भुरभुरी होकर फेल जाये. इसके बात इसमें हल्का पाटा लगा देना चाहिए जिससे की खेत समतल हो जाये और पानी रुकने की संभावना न हो. ये भी पढ़ें: अच्छे मुनाफे को तैयार करें बेलों की पौध

लौकी की कुछ उन्नत किस्में:

सामान्यतः हमारे देश में जिस फसल या सब्जी की किस्म बनाई जाती है वो किसी न किसी कृषि संस्थान द्वारा बनाई जाती है तथा वो संस्थान उस किस्म को अपने संस्थान के नाम से जोड़ देते हैं. जैसे नीचे दिए गए किस्मों के नाम इसी को दर्शाते हैं. नीचे दी गई पैदावार के आंकड़े स्थान, मौसम और जमीन की पैदावार आदि पर निर्भर करते हैं.

कोयम्बटूर‐१:

तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर द्वारा उत्पादित यह किस्म उसी के नाम से भी जानी जाती है .यह जून व दिसम्बर में बोने के लिए उपयुक्त किस्म है, इसकी उपज 280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है जो लवणीय क्षारीय और सीमांत मृदाओं में उगाने के लिए उपयुक्त होती हैं

अर्का बहार:

यह किस्म खरीफ और जायद दोनों मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त है. बीज बोने के 120 दिन बाद फल की तुडाई की जा सकती है. इसकी उपज 400 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है.

पूसा समर प्रोलिफिक राउन्ड:

इसको पूसा कृषि संस्थान द्वारा विकसित किया गया है. यह अगेती किस्म है. इसकी बेलों का बढ़वार अधिक और फैलने वाली होती हैं. फल गोल मुलायम /कच्चा होने पर 15 से 18 सेमी. तक के घेरे वाले होतें हैं, जों हल्के हरें रंग के होतें है. बसंत और ग्रीष्म दोंनों ऋतुओं के लिए उपयुक्त हैं.

पंजाब गोल:

इस किस्म के पौधे घनी शाखाओं वाले होते है. और यह अधिक फल देने वाली किस्म है. फल गोल, कोमल, और चमकीलें होंते हैं. इसे बसंत कालीन मौसम में लगा सकतें हैं. इसकी उपज 175 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है.

पुसा समर प्रोलेफिक लाग:

यह किस्म गर्मी और वर्षा दोनों ही मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त रहती हैं. इसकी बेल की बढ़वार अच्छी होती हैं, इसमें फल अधिक संख्या में लगतें हैं. इसकी फल 40 से 45 सेंमी. लम्बें तथा 15 से 22 सेमी. घेरे वालें होते हैं, जो हल्के हरें रंग के होतें हैं. उपज 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

नरेंद्र रश्मि:

यह फैजाबाद में विकसित प्रजाती हैं. प्रति पौधा से औसतन 10‐12 फल प्राप्त होते है. फल बोतलनुमा और सकरी होती हैं, डन्ठल की तरफ गूदा सफेद औैर करीब 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है.

पूसा संदेश:

इसके फलों का औसतन वजन 600 ग्राम होता है एवं दोनों ऋतुओं में बोई जाती हैं. 60‐65 दिनों में फल देना शुरू हो जाता हैं और 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

पूसा हाईब्रिड‐३:

फल हरे लंबे एवं सीधे होते है. फल आकर्षक हरे रंग एवं एक किलो वजन के होते है. दोंनों ऋतुओं में इसकी फसल ली जा सकती है. यह संकर किस्म 425 क्ंवटल प्रति हेक्टेयर की उपज देती है. फल 60‐65 दिनों में निकलनें लगतें है.

पूसा नवीन:

यह संकर किस्म है, फल सुडोल आकर्षक हरे रंग के होते है एवं औसतन उपज 400‐450 क्ंवटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है, यह उपयोगी व्यवसायिक किस्म है.

लौकी की फसल में लगने वाले कीड़े :

1 - लाल कीडा (रेड पम्पकिन बीटल):

उपाय: निंदाई गुडाई कर खेत को साफ रखना चाहिए. फसल कटाई के बाद खेतों की गहरी जुताई करना चाहिएए जिससे जमीन में छिपे हुए कीट तथा अण्डे ऊपर आकर सूर्य की गर्मी या चिडियों द्वारा नष्ट हो जायें.सुबह के समय जब ओस हो तब राख का छिड़काव करना चाहिए.

2 - फल मक्खी (फ्रूट फ्लाई):

क्षतिग्रस्त तथा नीचे गिरे हुए फलों को नष्ट कर देना चाहिए.सब्जियों के जो फल भूमी पर बढ़ रहें हो उन्हें समय समय पर पलटते रहना चाहिए.

लोकी में लगने वाले मुख्य रोग:

  • चुर्णी फफूंदी
  • उकठा (म्लानि)
मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का का उपयोग हर क्षेत्र में समय के साथ-साथ बढ़ता चला जा रहा है। अब चाहे वह खाने में हो अथवा औद्योगिक छेत्र में। मक्के की रोटी से लेकर भुट्टे सेंककर, मधु मक्का के कॉर्नफलेक्स, पॉपकार्न आदि के तौर पर होता है। 

वर्तमान में मक्का का इस्तेमाल कार्ड आइल, बायोफयूल हेतु भी होने लगा है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का इस्तेमाल मुर्गी एवं पशु आहार के तौर पर किया जाता है। 

भुट्टे तोड़ने के उपरांत शेष बची हुई कड़वी पशुओं के चारे के तौर पर उपयोग की जाती है। औद्योगिक दृष्टिकोण से मक्का प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट, पेन्ट्स, स्याही, लोशन, स्टार्च, कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने के उपयोग में लिया जाता है। 

बिना परागित मक्का के भुट्टों को बेबीकार्न मक्का कहा जाता है। जिसका इस्तेमाल सब्जी एवं सलाद के तौर पर किया जाता है। बेबीकार्न पौष्टिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण साबित होता है।

मक्का की खेती करने हेतु कैसी जमीन होनी चाहिए

सामान्यतः
मक्के की खेती को विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। परंतु, इसके लिए दोमट मृदा अथवा बुलई मटियार वायु संचार एवं जल की निकासी की उत्तम व्यवस्था के सहित 6 से 7.5 पीएच मान वाली मृदा अनुकूल मानी गई है।

मक्का की खेती हेतु कौन-सी मृदा उपयुक्त होती है

मक्के की फसल के लिए खेत की तैयारी जून के माह से ही शुरू करनी चाहिए। मक्के की फसल के लिए गहरी जुताई करना काफी फायदेमंद होता है। 

खरीफ की फसल के लिए 15-20 सेमी गहरी जुताई करने के उपरांत पाटा लगाना चाहिए। जिससे खेत में नमी बनी रहती है। इस प्रकार से जुताई करने का प्रमुख ध्येय खेत की मृदा को भुरभुरी करना होता है। 

ये भी देखें: रंगीन मक्के की खेती से आ सकती है आपकी जिंदगी में खुशियों की बहार, जाने कैसे हो सकते हैं मालामाल

फसल से बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए मृदा की तैयारी करना उसका प्रथम पड़ाव होता है। जिससे प्रत्येक फसल को गुजरना पड़ता है।

मक्का की फसल के लिए खेत की तैयारी के दौरान 5 से 8 टन बेहतरीन ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे डालनी चाहिए। 

भूमि परीक्षण करने के बाद जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 किलो जिंक सल्फेट बारिश से पहले खेत में डाल कर खेत की बेहतर ढ़ंग से जुताई करें। रबी के मौसम में आपको खेत की दो वक्त जुताई करनी पड़ेगी।

मक्के की खेती को प्रभवित करने वाले कीट और रोग तथा उनका इलाज

मक्का कार्बोहाईड्रेट का सबसे अच्छा स्रोत होने साथ-साथ एक स्वादिष्ट फसल भी है, जिसके कारण इसमें कीट संक्रमण भी अधिक होता है। मक्का की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों के विषय में चर्चा करते हैं।

गुलाबी तनाबेधक कीट

इस कीट का संक्रमण होने से पौधे के बीच के हिस्से में हानि पहुँचती है, जिसके परिणामस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है। इस वजह से पौधे पर दाने नहीं आते है।

मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट

इस तरह के कीट पौधे की जड़ों को छोड़कर सभी हिस्सों को बुरी तरह प्रभावित करते है। इस कीट की इल्ली सबसे पहले तने में छेद करती है। इसके संक्रमण से पौधा छोटा हो जाता है और उस पौधे में दाने नहीं आते हैं। आरंभिक स्थिति में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है। इसे पौधे के निचले भाग की दुर्गंध से पहचाना जा सकता है।

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उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है

तनाछेदक की रोकथाम करने के लिये अंकुरण के 15 दिन के उपरांत फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे अथवा कार्बोरिल 50 फीसद डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना उपयुक्त होता है। इसके 15 दिनों के उपरांत 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों पर डाल दें।

मक्का में लगने वाले मुख्य रोग

1. डाउनी मिल्डयू :- इस रोग का संक्रमण मक्का बुवाई के 2-3 सप्ताह के उपरांत होना शुरू हो जाता है। बतादें, कि सबसे पहले पर्णहरिम का ह्रास होने की वजह से पत्तियों पर धारियां पड़ जाती हैं, प्रभावित भाग सफेद रूई की भांति दिखाई देने लगता है, पौधे की बढ़वार बाधित हो जाती है। 

उपचार :- डायथेन एम-45 दवा को पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव जरूर करना चाहिए। 

2. पत्तियों का झुलसा रोग :- पत्तियों पर लंबे नाव के आकार के भूरे धब्बे निर्मित होते हैं। रोग नीचे की पत्तियों से बढ़ते हुए ऊपर की पत्तियों पर फैलना शुरू हो जाते हैं। नीचे की पत्तियां रोग के चलते पूर्णतया सूख जाती हैं। 

उपचार :- रोग के लक्षण नजर पड़ते ही जिनेब का 0.12% के घोल का छिड़काव करना चाहिए। 

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3. तना सड़न :- पौधों की निचली गांठ से रोग संक्रमण शुरू होता है। इससे विगलन के हालात उत्पन्न होते हैं एवं पौधे के सड़े हुए हिस्से से दुर्गंध आनी शुरू होने लगती है। पौधों की पत्तियां पीली होकर के सूख जाती हैं। साथ ही, पौधे भी कमजोर होकर नीचे गिर जाती है। 

उपचार :- 150 ग्रा. केप्टान को 100 ली. पानी मे घोलकर जड़ों में देना चाहिये।

मक्का की फसल की कटाई और गहाई कब करें

फसल समयावधि पूरी होने के बाद मतलब कि चारे वाली फसल की बुवाई के 60-65 दिन उपरांत, दाने वाली देशी किस्म की बुवाई के 75-85 दिन बाद, एवं संकर एवं संकुल किस्म की बुवाई के 90-115 दिन पश्चात तथा दाने मे करीब 25 प्रतिशत तक नमी हाने पर कटाई हो जानी चाहिए। 

 मक्का की फसल की कटाई के पश्चात गहाई सबसे महत्वपूर्ण काम है। मक्का के दाने निकालने हेतु सेलर का इस्तेमाल किया जाता है। सेलर न होने की हालत में थ्रेशर के अंदर सूखे भुट्टे डालकर गहाई कर सकते हैं।

लौकी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

लौकी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

लौकी की खेती मुख्यतः रबी, खरीफ व जायद तीनों सीजन में की जाने वाली बागवानी फसल है। लौकी को घिया और दूधी के नाम से भी जाना जाता है। लौकी की खेती भारत के तकरीबन समस्त राज्यों में की जाती है। लौकी की फसल समलत खेत, पेड़-पौधे, मचान निर्मित कर व घर की छतों पर बड़ी ही सहजता से की जा सकती है। आगे हम आपको लौकी की खेती के विषय में जानकारी देने वाले हैं।

लौकी की खेती

अगर हम हरी सब्जियों की बात करें तो लौकी का नाम सबसे पहले आता है। यह लोगों के शरीर के लिए काफी फायदेमंद होती है। लौकी के अंदर विटमिन बी, सी, आयरन, मैग्नीशियम, पोटैशियम एवं सोडियम आदि भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इसका उपयोग मधुमेह, वजन कम करने, पाचन क्रिया, कोलेस्ट्रॉल को काबू में करने एवं नेचुरल ग्लो के लिए लौकी काफी ज्यादा लाभदायक होती है।

लौकी की खेती की विस्तृत जानकारी

  • लौकी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
  • लौकी की खेती के लिए गर्म व आर्द्र जलवायु अच्छी मानी जाती है।
  • बीज अंकुरण के लिए लगभग 30 से 35 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान होना चाहिए।
  • पौधों के विकास के लिए 32 से 38 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान उपयुक्त होता है।


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लौकी की खेती के लिए भूमि कैसी होनी चाहिए

लौकी की खेती जीवांश युक्त जल धारण क्षमता वाली बलुई दोमट भूमि सबसे उपयुक्त मानी जाती है। लौकी की खेती कुछ अम्लीय भुमि के अंतर्गत भी की जा सकती है। लौकी की फसल के लिए 6.0 से 7.0 पीएच वाली मृदा सबसे अच्छी मानी जाती है। खेत से जल निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।

लौकी की खेती के लिए भूमि की तैयारी कैसे करें

  • लौकी की खेती के लिए भूमि की तैयारी करने के दौरान 8 से 10 टन गोबर की खाद एवं 2.5 किलोग्राम ट्रिकोडेर्मा प्रति एकड़ की दर से खेत में डालें।
  • खाद डालने के उपरांत खेत की बेहतर ढ़ंग से गहरी जुताई कर पलेवा कर दें।
  • पलेवा करने के 7 से 8 दिन उपरांत 1 बार गहरी जुताई करदें।
  • इसके उपरांत कल्टीवेटर से 2 बार आडी-तिरछी गहरी जुताई कर पाटा कर खेत को समतल कर लें।

लौकी की बिजाई हेतु समुचित समय

  • खरीफ (वर्षाकालीन) में बुआई का समय- 1 जून से 31 जुलाई के मध्य फसल अवधि- 45 से 120 दिन है
  • जायद (ग्रीष्मकालीन) में बुआई का समय- 10 जनवरी से 31 मार्च के मध्य फसल अवधि- 45 से 120 दिन है
  • रबी के लिए बुआई का समय- सितंम्बर-अक्टूबर

लौकी की प्रजातियां

काशी गंगा

  • काशी गंगा किस्म की लौकी की बढ़वार मध्यम होती है।
  • इसके तने में गाठें काफी हद तक पास-पास होती है।
  • इस किस्म की लौकी का वजन तकरीबन 800 से 900 ग्राम होता है।
  • इस प्रजाति को आप गर्मियों में 50 एवं बरसात में 55 दिनों के समयांतराल पर तोड़ सकते हैं।
  • इस किस्म से लगभग 44 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन लिया जा सकता है।

काशी बहार

  • इस किस्म की लौकी 30 से 32 सेंटीमीटर लंबी एवं 7-8 सेंटीमीटर व्यास होती है।
  • काशी बहार लौकी का वजन लगभग 780 से 850 ग्राम के मध्य होती है।
  • इस किस्म से 52 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन लिया जा सकता है।
  • इस किस्म को गर्मी एवं बरसात दोनों मौसम हेतु अनुकूल मानी जाती है।


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पूसा नवीन

  • पूसा नवीन प्रजाति बेलनाकार की होती है।
  • इस किस्म की लौकी का वजन तकरीबन 550 ग्राम तक होता है।
  • इस किस्म से 35 से 40 टन प्रति हेक्टेयर की पैदावार अर्जित की जा सकती है।

अर्का बहार

  • इस किस्म की लौकी मध्यम आकार एवं सीधी होती है।
  • इस किस्म की लौकी का वजन लगभग एक किलोग्राम तक होता है।

पूसा संदेश

  • इस किस्म का फल बिल्कुल गोलाकार होता है।
  • इस प्रजाति की लौकी का वजन लगभग 600 ग्राम तक होता है।
  • पूसा संदेश गर्मी में 60 से 65 दिन तो वहीं बरसात में 55 से 60 दिन में तैयार हो जाती है।
  • इस किस्म से 32 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन अर्जित किया जा सकता है।

पूसा कोमल

  • लौकी की यह किस्म 70 दिनों में पककर तैयार हो जाती है
  • पूसा कोमल किस्म लंबे आकार की होती है।
  • इस किस्म से 450 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन लिया जा सकता है।

नरेंद्र रश्मि

  • नरेंद्र रश्मि किस्म की लौकी का वजन लगभग 1 किलोग्राम होता है।
  • इसके फल छोटे एवं हल्के हरे रंग के होते हैं।
  • नरेंद्र रश्मि से 30 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन लिया जा सकता है।

लौकी की खेती हेतु बीज की मात्रा

लौकी की 1 एकड़ फसल उगाने के लिए 1 से 1.5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।

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बीज उपचार

हाइब्रिड बीज कम्पनियों द्वारा उपचारित करके बाजार में भेजते हैं, तो इसको उपचारित करने की जरुरत नहीं पड़ती है। इसकी सीधे बिजाई की जाती है। यदि आपने लौकी का बीज घर पर बनाया है, तो उसको उपचारित करना जरूरी है। लौकी के बीज की बिजाई से पूर्व 2 ग्राम कार्बोनडाज़िम / किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लें।

लौकी की बुआई का तरीका

  • लौकी की बिजाई के दौरान पौधे से पौधे की दूरी 60 सेमी।
  • पंक्ति से पंक्ति का फासला 150 से 180 सेमी रखें।
  • लौकी के बीज की 1 से 2 सेमी की गहराई पर बिजाई करें।

लौकी की खेती मे उर्वरक व खाद प्रबंधन

  • लौकी की फसल के लिए खेत तैयार करने के दौरान खेत में 8 से 10 टन गोबर की खाद और 2.5 किलोग्राम ट्रिकोडेर्मा प्रति एकड़ की दर से खेत में डालनी चाहिए।
  • लौकी की बिजाई के दौरान 50 किलोग्राम डी ऐ पी ( DAP ), 25 किलोग्राम यूरिया ( Urea ), 50 किलोग्राम पोटाश ( Potash ), 8 किलोग्राम जायम, 10 किलोग्राम कार्बोफुरान प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में डालें।
  • लौकी की बिजाई के 20 से 25 दिनों उपरांत 10 ग्राम NPK 19 : 19:19 को 1 लीटर पानी मैं घोलकर प्रति एकड़ के हिसाब से फसल पर छिड़काव करें।
  • लौकी की बिजाई के 40 से 45 दिन बाद 50 किलोग्राम यूरिया को प्रति एकड़ के हिसाब से इस्तेमाल करें।
  • लौकी की बिजाई के 50 से 60 दिन पर 10 ग्राम NPK 0:52:34 एवं 2 मिली टाटा बहार को 1 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ के मुताबिक इस्तेमाल करें।

लौकी की खेती मे सिंचाई

  • जायद की फसल हेतु 8-10 दिनों के समयांतराल पर सिंचाई करें।
  • खरीफ फसल में सिंचाई बारिश के अनुरूप की जाती है, वर्षा न होने की हालत में सिंचाई।
  • खेत की नमी के मुताबिक रबी की फसल में 10 से 15 दिन की समयावधि पर सिंचाई करें।

लौकी की फसल को प्रभावित करने वाले कीड़े

लाल कीडा : पौधो पर दो पत्तियां निकलने के उपरांत इस कीट का प्रकोप चालू हो जाता है। यह कीट पत्तियों व फूलों को खा कर फसल को बर्बाद कर देता है। यह कीट लाल रंग व इल्ली हल्के पीले रंग की होती है। इस कीट का सिर भूरे रंग का होता है।

लाल कीड़ा की रोकथाम कैसे करें

  • खेत की नराई/गुड़ाई करके खेत को साफ सुथरा रखें।
  • फसल कटाई के उपरांत खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए, जिससे मृदा में छिपे कीट और उनके अण्डे ऊपर पहुँच कर सूर्य की गर्मी अथवा चिडियों द्वारा खत्म कर दिए जायेंगे।
  • कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत दानेदार 7 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से पौधे से 3 से 4 सेमी. फासले से डालकर खेत में पानी लगाए।
  • कीटों की संख्या अधिक होने पर डायेक्लोरवास 76 ई.सी. 300 मि.ली. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें।

फल मक्खी

प्रौढ़ फल मक्खी घरेलू मक्खी के आकार की लाल भूरे अथवा पीले भूरे रंग की होती है। इसके सिर पर काले अथवा सफेद धब्बे मौजूद होते हैं। इस कीट की मादा फलों को भेदकर भीतर अण्डे देती है। अण्डे से निकलने वाली इल्लियां फलों के गूदे को खा जाती हैं, जिसकी वजह से फल काफी सड़ने लग जाता है। बरसात में की जाने वाली फसल पर इस कीट का प्रकोप ज्यादा होता है।

फल मक्खी की रोकथाम किस प्रकार की जाती है

  • खराब और नीचे गिरे हुए फलों को अतिशीघ्र नष्ट कर देना चाहिए।
  • जो फल भूमि के संपर्क में आते हैं। उनको समयानुसार पलटते रहना चाहिए।
  • इसके प्रकोप से फसल का संरक्षण करने के लिए 50 मीली, मैलाथियान 50 ई.सी. एवं 500 ग्राम शीरा अथवा गुड को 50 लीटर पानी में मिश्रित कर छिड़काव करें। एक सप्ताह के उपरांत फिर से छिड़काव करें।

लौकी के मुख्य रोग

चुर्णी फफूंदी

यह रोग फफूंद के कारण फसल पर आता है। सफेद दाग एवं गोलाकार जाल सा पत्तियों एवं तने पर नजर आता है। जो कि बाद मे बढ़कर कत्थई रंग में तब्दील हो जाता है। इसके रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती हैं। इसके प्रकोप से पौधों का विकास बाधित हो जाता है।

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चुर्णी फफूंद रोग की रोकथाम ऐसे करें

  • रोगी पौधे को उखाड़ कर मृदा में दबा दें अथवा उनको आग लगाकर जला दें।
  • फसल को इस प्रकोप से बचाने हेतु घुलनशील गंधक जैसे कैराथेन 2 प्रतिशत अथवा सल्फेक्स की 0.3 प्रतिशत रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखाई पड़ते ही कवकनाशी दवाइयों का इस्तेमाल 10‐15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।

उकठा (म्लानि)

इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियाँ मुरझाके नीचे की तरफ लटक जाती हैं एवं पत्तियाँ के किनारे बिल्कुल झुलस जातें हैं। इस रोग से बचाव के लिए फसल चक्र अपनाना अति आवश्यक होता है। बीज को वेनलेट अथवा बाविस्टिन 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।

लौकी की तुड़ाई एवं पैदावार

लौकी की तुड़ाई उनकी किस्मों पर आधारित होती हैं। लौकी के फलों को पूरी तरह से विकसित होने पर कोमल अवस्था में ही तोड़ लेना चाहिए। बुवाई के 45 से 60 दिनों के पश्चात लौकी की तुड़ाई चालू हो जाती है। प्रति हेक्टेयर जून‐जुलाई एवं जनवरी‐मार्च वाली फसलों में क्रमश 200 से 250 क्विंटल एवं 100 से 150 क्विंटल उत्पादन लिया जा सकता है।